निराले चमत्कार

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बाबा नंद सिंह जी महाराज की कुछ प्रमुख विशेषताएँ दूसरों से भिन्न हैं। ये विशेषताएँ सतयुग, त्रोता, द्वापर और कलियुग में स्थापित संस्कृतियों से भिन्न और विशिष्ट है।

महान् बाबा जी ने अपने पवित्र स्थान पर माया को किसी भी रूप में प्रवेश नहीं करने दिया। बाबा नंद सिंह जी महाराज का पवित्र स्थान पूरे संसार भर में एक पहला विशेष निराला स्थान था जहाँ पर पैसे का चढ़ावा पूरी तरह मना था। बाबा जी के द्वारा अपने पास धन रखने की बात तो बहुत दूर थी, उन्होंने तो इस पर, चाहे वह नोट, सिक्के या सोना किसी भी रूप में हो, अपनी दृष्टि ही नहीं डाली थी और न ही उन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की सेवा कर रहे विहंगमों (कीर्तनकार और पाठी सेवादारों) को इन सबको रखने और व्यवहार में लाने की आज्ञा दी थी।

बाबा नंद सिंह जी महाराज के पवित्र स्थान पर स्त्रियों को अंदर जाने की आज्ञा नहीं थी और न ही वे उस स्थान पर रुक सकती थी। वे अपने पति या परिवार के किसी वृद्ध जन के साथ संगत में हाजिर हो सकती थीं और तत्पश्चात् बिना किसी विलम्ब के उन्हें वापिस लौटना पड़ता था। इस तरह उनका स्थान कामिनी और कंचन की उपस्थिति से पूर्ण रूप से मुक्त था। बाबा जी ने कभी भी किसी अकेली स्त्रा से बात नहीं की थी।

बाबा जी के इस पवित्र स्थान पर कभी भी भोजन नहीं पका था। इसलिए खाद्य पदार्थों को एकत्रा करने की कभी भी ज़रूरत नहीं पड़ी थी। ऐसी वस्तुओं को इकट्ठा करने अथवा लाने के लिए कभी भी कोई आदेश नहीं दिया गया था। न ही किसी व्यक्ति को कहा गया था और न ही ऐसे प्रबंध किए गए थे।

कभी ऐसा समय भी आता था जब कुछ दिनों के लिए भोजन भी नहीं आता था। अचानक ऐसे आन पड़े समय में विहंगमों (सेवादारों) को वृक्षों के पत्ते आदि खाकर निर्वाह करना पड़ता था, किंतु भोजन माँगने का कोई भी प्रयास नहीं किया जाता था।

साचु नामु अधारु मेरा
जिनि भुखा सभि गवाईआ।।

भोजन जीवन का सहारा है। मनुष्य भोजन के बिना नहीं रह सकता। वह भोजन के सहारे जीवित रहता है। यह उसके जीवन का आश्रय व आधार है। श्री गुरु अमर दास जी फरमाते है कि ‘सच्चा नाम’ ही मेरा सच्चा सहारा है तथा यही केवल एक मात्रा आश्रय और आधार है। एक दिव्य और आध्यात्मिक व ‘सच्चे नाम’ ने मेरी सारी तृष्णाओं को तृप्त किया है और यही मेरा सहारा बन गया है। केवल बाबा नंद सिंह जी महाराज ने ही इस सच को साबित किया है और वह भी इस अंधकार पूर्ण कलियुग में कि बिना किसी संदेह के केवल-और-केवल ‘नाम’ के सहारे ही कोई संस्था स्थिर रूप से कायम रह सकती है।

बाबा नंद सिंह जी महाराज का पवित्र स्थान ही एक मात्रा ऐसा स्थान था, जो केवल ‘नाम’ पर ही आश्रित और निर्भर था।

बाबा नंद सिंह जी महाराज ने एक बार यह साखी सुनायी-

एक बार गुरु नानक पातशाह बस्ती से बाहर की ओर चल पड़े और उनके साथ-साथ भारी संगत भी चल पड़ी। सच्चे पातशाह ने फिर खेल दिखाने शुरु किए। नियामतें और दात-उपहारों की वर्षा शुरु कर दी। वे एक जगह पर ठहर गए और फरमाया कि सभी आस-पास देखें कि क्या कोई कीमती धातु पड़ी है? यह कीमती धातु बहुत काम आने वाली चीज़ है! यह आप ले लो और घरों को वापिस चले जाओ। कई लोगों ने हाथ जोड़कर शीश नवाया और कीमती धातु जितनी उठा सकते थे, उठायी और अपने घर की ओर चल दिए। सच्चे पातशाह आगे बढ़ गए। कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने देखा कि कुछ लोग अभी भी पीछे आ रहे हैं। एक जगह पर वे फिर रुके और फरमाया, कि देखो यह तो चाँदी के ढेर पड़े लगते हैं। जितनी उठा सकते हो उठाओ और वापिस लौट जाओ। बहुत से लोग चाँदी उठाकर अपने घरों को वापिस लौट गए। आगे बढते जा रहे श्री गुरु नानक देव जी ने फिर मुड़कर देखा तो पाया कि अभी भी कुछ लोग साथ ही चले आ रहे हैं। फिर सच्चे पातशाह ने सोने की दात बख़्शी और कई लोग सोना लेकर घरों को वापिस लौट गए। इस तरह दात लुटाते हुए दातार पिता बहुत आगे निकल गए। फिर मुड़कर पीछे देखा तो अकेले लहणा जी ही पीछे-पीछे चले आ रहे थे।

सच्चे पातशाह श्री गुरु नानक देव जी बोले-

‘लहणा जी, हमने इतनी ‘दातें’ लुटायी है और आप उन सब को छोड़कर फिर भी हमारे पीछे चले आ रहे हो? क्या हमारे वो ‘दातें’ (बख़्शी गई वस्तुएँ) अच्छी नहीं लगीं!’

भाई लहणा जी बोले,

‘सच्चे पातशाह, ‘दातें’ लुटाने वाला दाता जो मेरे साथ है, फिर मुझे किस बात का घाटा रहा!’

बाबा नंद सिंह जी महाराज का सारा जीवन ही दातार पिता पर निर्भर था। उन्होंने ‘दातों’ की ओर ध्यान ही नहीं दिया उनकी सारी ऊँची और सच्ची मर्यादा सिर्फ उस दाता के सहारे खड़ी थी। ‘नाम के सहारे से खड़ी थी, किसी और सहारे पर नहीं खड़ी थी। पैसे को उन्होंने कभी हाथ नहीं लगाया। आप ने ही एक बार फरमाया कि एक फ़कीर के लिए पैसे को पास रखना उस दातार पिता के भरोसे पर भारी संदेह करना है। यह उसकी हार्दिक उदारता में एक भारी कमी निकालने के समान है। यह ईश्वर (रब) के एक सच्चे आशिक के प्रेम में बड़ी भारी मिलावट है।

बाबा नंद सिंह जी महाराज ने बिना किसी शक के यह साबित कर दिखाया है कि केवल नाम ही सबसे उत्तम है, और इस सर्वोच्च सहारे से सब प्रकार की इच्छाओं की समाप्ति हो जाती है।

‘नाम के जाहज’ साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब पर पूर्ण रूप से भरोसा और विश्वास की यही अलौकिक शान है।

महान् बाबा जी फरमाया करते थे और इस बात पर जोर भी देते थे कि एक सच्चा सिख सच्चे दातार को छोड़कर उनके द्वारा दिए जाने वाले पदार्थों (दात) के पीछे नहीं भागता।

कलियुग के अवतार श्री गुरु नानक देव जी का आलीशान दरबार जहाँ अपने पूरे उत्कर्ष पर हो और परमात्मा के नाम का अमृत निरन्तर प्रवाहित हो रहा हो तो वहाँ माया के प्रति किसी प्रकार की भटकन, परमात्मा के सच्चे प्रेम सम्बन्धों में अड़चन डालती है। दातार से पदार्थों की प्राप्ति की मानसिकता, आत्महत्या करने के बराबर है।

आध्यात्मिक इतिहास पर नजर डालते हुए मुझे किसी भी युग में ऐसे किसी भी स्थान का उदाहरण नहीं मिला, जहाँ कि साधु-सन्यासी भोजन या भोजन पदार्थ इकट्ठा करने या माँगने के लिए लोगों के घरों में न गए हों। एक बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि बाबा नंद सिंह जी महाराज ने कलियुग में एक ऐसा पवित्र स्थान स्थापित किया जो माया के सभी रूपों की पहुँच से परे था। बाबा नंद सिंह जी महाराज का पवित्र स्थान तो प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव से भी बहुत परे था। समूचे संसार में और कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहाँ परमात्मा में ऐसी अटल आस्था और विश्वास प्रकट किया गया हो।

परमात्मा के प्रति प्रेम भाव प्रकट करते समय किसी भी पदार्थ को पाने की लालसा करना, ऐसा ख़याल लाना अथवा किसी भी प्रकार की भटकन, परमात्मा में पूर्ण विश्वास व भरोसे की कमी का प्रतीक है। भूलोक की सतह पर और वह भी विशेषकर भौतिक पदार्थों की दौड़ में अंधे हुए कलियुग में ‘सच्च खण्ड’ की स्थापना पूर्ण पवित्रता और इस सच्चे शान से की गयी है कि यह स्थान सांसारिक पदार्थों के प्राप्ति-दोषों से मुक्त है।

मेरे सत्कारयोग्य पिता श्री बाबा नरिन्दर सिंह जी जब दिव्य आध्यात्मिक प्रसन्नता में बाबा नंद सिंह जी महाराज की शान का गुणगान करते हुए उनकी महिमा का बखान करते थे तो ऊँचे स्वर से पुकारते थे-

बाबा नंद सिंह जी महाराज
तूँ कमाल-ही-कमाल हैं।
उस समय बीबी भोला रानी हारमोनियम पर कीर्तन की मीठी धुन छेड़ देती थी और वहाँ उपस्थिति सारी संगत पूरे उत्साह से उच्च स्वर में गाती थी-
बाबा नंद सिंह जी महाराज
तूँ कमाल-ही-कमाल हैं।

किसी भी प्रकार का प्रचार नहीं होता था और न ही किसी को चिट्ठी या नियमित पत्रा भेजे जाते थे। पवित्र दरबार दूर-दराजों के स्थान पर लगाए जाते थे जो कि कस्बों से दूर, रेल या सड़क मार्गों से नहीं जुड़े होते थे, तो भी शहद की मक्खियों के झुण्डों की तरह, चात्रिक पक्षियों की तरह और भँवरों की तरह लाखों की संख्या में श्रद्धालु जन परमात्मस्वरूप बाबा नंद सिंह जी महाराज के दर्शन रूपी अमृत का पान करने के लिए आ विराजते थे और इस भूलोक पर बाबा नंद सिंह जी महाराज द्वारा बनाए गए अलौकिक दरबार में स्वाति बूँद सरीखे अमृत में अपने-आप को निमग्न कर लेते थे।

समूचे विश्व में यही एक दरबार था जहाँ परमात्मा के रुहानी नूर की जय-जयकार करने के अतिरिक्त किसी प्रकार का सांसारिक अथवा मायिक सम्बन्ध प्रवेश ही नहीं पा सकता था। किसी को कोई सरोपा भेंट करके सम्मानित नहीं किया जाता था, चाहे वह कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो। न तो किसी के नाम की अरदास और न ही किसी की प्रशंसा की जाती थी।

मेरे परम प्रिय बाबा नंद सिंह जी महाराज, जो सांसारिक इच्छाओं से मुक्त और निर्लिप्त हैं, जो सबसे महान् और सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे पवित्र हैं, उनकी सदा-सर्वदा जय-जयकार है।

बाबा नंद सिंह जी महाराज का कोई भी समतुल्य नहीं है। बाबा नंद सिंह जी महाराज की स्तुति करने वाली ध्वनि कितनी सच्ची और मन को संतुष्ट करने वाली है-

बाबा नंद सिंह जी महाराज तूँ कमाल-ही-कमाल है।
तूफानी कलियुग के इस तीव्र वेग में कोई विरला, परमात्मा का प्यारा ही परमात्मा के नाम की जोत (ज्योति) को जलाएगा और जगाए रखेगा।

बाबा नंद सिंह जी महाराज के स्थान पर राम-नाम की जोत का ही दीपक जलता था। नाम की जोत के प्रकाश के सामने भला माया और अंधकार का क्या काम? जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहाँ अंधकार कैसे रह सकता है? साध संगत जी, जहाँ नाम प्रकट हो जाए वहाँ माया टिक ही नहीं सकती। नाम के आश्रय पर ही सब कुछ खड़ा है।

नाम के धारे सगले जंत।।
नाम के धारे खंड ब्रहमंड।।

उस सहारे को भूलकर ही सारी दुनिया भटक रही है-‘वह है नाम का सहारा’ बाकी इस कलियुग के सारे सहारे या साधन तो आग की तरह जलाने वाले हैं।

कलजुगि रथु अगनि का कूडु अगै रथवाहु।।

इस कलियुग ने तो बड़े-बड़े साधु-संतों, पीरों और फकीरों की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। जहाँ नाम का सहारा प्रकट हो गया हो, वहाँ माया का अंधकार तो दिखाई नहीं देता। माया तो वहाँ लेश-मात्रा भी नहीं रह सकती।

जिसके आश्रय से दुनिया टिकी है, उस नाम की ‘जोत’ के आश्रय तक पहुँचना ही सबसे कठिन है। बाबा नंद सिंह जी महाराज ने नाम की इस जोत को ऐसा प्रकट किया कि सारी दुनिया की आँखे ही चुँधिया उठीं और उन्होंने उन सबों को नाम के आश्रय (‘नाम के जहाज’ श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी) के साथ जोड़ दिया। यह था उस नाम के आश्रय की जोत से निकले प्रकाश का चमत्कार।

बाबा नंद सिंह जी महाराज के स्थान पर उनके नाम की तपस्या और साधना का सूर्य इस प्रकार चमक रहा है, जिस प्रकार शीशे में लगी बत्ती का प्रकाश शीशे को पार कर उससे बाहर आ जाता है। बाबा नंद सिंह जी महाराज द्वारा की गयी नाम की कमाई व नाम की प्राप्ति का प्रकाश बाबा नंद सिंह महाराज के रोम-रोम से जगमगाते हुए चारों तरफ फैल रहा था। इस नाम की ज्योति से निकले प्रकाश की मौजूदगी में माया अथवा पदार्थों की प्राप्ति का ज़िक्र करना ही बहुत तुच्छ और घटिया सोच लगती है।

जहाँ यह प्रकाश जगमगा रहा हो वहाँ माया का पसारा असम्भव है। बाबा नंद सिंह जी महाराज का दिव्य नाम स्वयं अपनी ही ज्योति से प्रकाशित हैं। दुनिया की किसी वस्तु के साथ इस प्रकाश की तुलना करना उस निरंकार के नाम के प्रति अनादर और धृष्टता व्यक्त करना है। नाम के ही सहारे पर सभी जीव जन्तु खड़े हैं। नाम इन चीजों के सहारे पर नहीं खड़ा, तो क्या नाम किन्हीं लंगरों के सहारे खड़ा है? डेरों के सहारे खड़ा है? भवनों और अस्पतालों के सहारे खड़ा है? नाम इनके सहारे पर नहीं खड़ा। जिस प्रकार कर्म, कर्त्ता के ऊपर नाचता नहीं अर्थात् कर्त्ता से बड़ा नहीं होता उसी प्रकार दातार द्वारा दिये गए तुच्छ सांसारिक पदार्थ, दातार के ऊपर नहीं नाच सकते अर्थात् पदार्थों की व्यवस्था करने वाला दातार उनसे ऊपर है।

बाबा नंद सिंह जी महाराज की विशुद्ध तपस्या, विशुद्ध मर्यादा और पावन नाम की ज्योति, इन सभी मिलावटों से स्वतंत्रा और मुक्त है तथा किन्हीं सहारों पर नहीं खड़ी है।