त्याग

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एक बार की बात है कि एक ट्टषि बाबा जी के पास आए। यह पूर्णिमा का दिन था।

ट्टषि जंगल में श्री गुरु नानक साहिब जी के महान् दरबार को देखकर अचम्भित हो गए। समूह संगत अन्तर्मुग्ध होकर बाबा जी की हजूरी में बरस रही रूहानी फुहारों से आनन्दित हो रही थी। इस ट्टषि ने बाबा जी का यशोगान पहले भी सुना था। श्री गुरु नानक साहिब जी के महान् दरबार की अलौकिक व इलाही शान के दर्शन कर वे चकित रह गए। ट्टषि ने बाबा जी से पूछ ही लिया कि सच्चा त्याग क्या है? बाबा जी ने उनका प्रश्न सुना व चुप रह गए, क्योंकि उस समय सारे वातावरण में निराला रंग छा रहा था, गुरुवाणी के पवित्र शब्दों का कीर्तन हो रहा था। दीवान की समाप्ति हो गई। बाबा जी नित्य की तरह अपने नम्र स्वभाव के अनुसार हाथ जोड़कर समूह संगत से चले गए। फिर उस स्थान पर वापिस नहीं आए। बाबा जी के जाने के उपरान्त कुछ समय पश्चात् पता चला कि वे कहीं चले गए हैं। वे सभी कुछ वैसे ही छोड़ गए हैं, जैसे वे उठे थे। बाबा जी के आदेशानुसार वह अस्थायी ढाँचा अगली सुबह ही गिरा दिया गया व सब कुछ अग्नि को भेंट कर दिया गया। अब पहली रात्रि की तरह कोई शान-ओ-शौकत नहीं थी। वे ट्टषि जी को त्याग का अर्थ समझा गए थे। अब ट्टषि जी अत्यधिक रोए। उन्होंने बाबा जी के श्रद्धालुओं के पास प्रश्न करने व उस का उत्तर मिल जाने का बहुत पछतावा किया तथा संगतों से इसकी क्षमा-याचना की। काफी समय उपरान्त बाबा जी को हड़प्पा के जंगलों में गहरी तपस्या करते हुए देखा गया।

बाबा जी ने ‘त्याग’ सहित सब कुछ त्याग दिया था। उन्होंने कोई सांसारिक धन-दौलत नहीं बनाई थी। वे सांसारिक वस्तुओं पर आश्रित भी नहीं थे। उन का त्याग निराला ही था। उन के सब कुछ गुरु नानक साहिब ही थे। उन्होंने लाखों संगतों को श्री गुरु नानक साहिब के अमृत नाम का रस, अमृत प्रेम व भक्ति का आशीर्वाद दिया था।

उन्होंने अपने हृदय रूपी मंदिर में सिर्फ श्री गुरु नानक साहिब जी को विराजमान रखने के लिए कामिनी, कंचन, लोभ, मोह, धन-दौलत, सुख, प्रसिद्धि व अहंकार आदि माया के सभी रूपों का त्याग कर दिया था।

वे स्वयं अपने पास तो क्या रखते उन्होंने धन-दौलत व स्वर्ण को कभी स्पर्श तक नहीं किया तथा न ही वहाँ उनके पास ‘ठाठ’ में रहने वाले अनुयायियों को इस के रखने की आज्ञा थी।

“एक सच्चे व पूर्ण संत के दो आत्मिक नेत्रा होते हैं - पहला पूर्ण त्याग का व दूसरा प्रभु दर्शनों के पूर्ण वैराग का होता है।”