दिव्य ज्ञान (continued)

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अपनी मूर्खता को अनुभव करके राजा ने हाथ जोड़ कर विनती की-

“महाराज, जब यह तन, मन, धन मेरा नहीं, यह राज्य मेरा नहीं और ये सम्पत्तियाँ मेरी नहीं तो मैं आपके चरण- कमलों में क्या अर्पित कर सकता हूँ?”

महान् मुक्तिदाता और दिव्य प्रज्ञा के प्रभु ने तब राजा पर दया-दृष्टि डालते हुए कहा-

“अपने इस ‘मैं’ को ही मुझे दे दो।”

गुरु की करुणा का उत्तम अधिकारी वह राजा उनके पवित्र चरणों पर गिर पड़ा और तत्काल उसे उल्लासमयी समाधि अवस्था की अनुभूति हुई।

तभी महान् गुरु जी ने राजा को उठने के लिए कहा और यह भी कहा कि जाओ, अपना राज्य संभालो। राजा को अध्यात्म ज्ञान मिल गया था। उसने उस राज्य पर शासन करने में पूर्ण असमर्थता जाहिर की, जो उसका था ही नहीं। विनयपूर्वक उसने प्रार्थना की: “हे समस्त अज्ञान और अंधकार के विनाशक! हे मेरे महान् गुरु! सब ज्योतियों की परम ज्योति! मैं अब शासन कैसे करूँ? हे प्रकाशदाता, मुझ पर दया करो और मुझे आगे और प्रकाश दिखाओ।”

तब दिव्य ज्ञान का अमृत श्री गुरु नानक साहिब के पवित्र अधरों से फिर प्रवाहित होने लगा:

“राजन् पहले तुम ‘यह मेरा राज्य है’, ‘मेरा महल है’, ‘मेरा खजाना है’, ‘मेरा परिवार है’- ऐसा-ऐसा कह कर और सोचकर शासन करते रहे हो। अब जब तुमने ‘मैं’ को ही त्याग दिया है तो ‘मैं’ और ‘मेरा’ तो खत्म हो गए। अब किसी भी चीज पर तुम अपना अधिकार नहीं जता सकते। अब तुम गुरु और ईश्वर के उपकरण बन कर राज्य करो। सब कुछ भगवान् का है। राज्य को भगवान् की पवित्र अमानत मानते हुए इसकी देख-भाल करो और शासन करो। ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना ही आत्मा को बाँधती है। सारे सांसारिक सम्बन्ध इस झूठे ‘मैं’ से- अहंकार से- ही जुड़े हैं। अब जबकि ‘मैं’ के अहंकार के ये सारे रिश्ते खत्म हो गए हैं, तुम मुक्त हो।”

अपनी विशिष्ट सादगी में ही श्री गुरु नानक साहिब ने राजा को उपदेश दे दिया कि किस प्रकार सांसारिक विकारों के बीच रह कर भी विकारहीन रहा जा सकता है, सांसारिक आसक्तियों के बीच अनासक्त रहा जा सकता है तथा सांसारिक बंधनों के बीच भी मुक्त रहा जा सकता है।

एकमात्रा कत्र्ता गुरु जी के चरण कमलों में अहम् के सम्पूर्ण समर्पण से, स्व से जुड़ी सभी चिंताएँ और जीवन के भार सद्गुरु ही उठा लेते हैं, जिससे मनुष्य को अपना जीवन-पथ सहज व सरल अनुभव होता है। मनुष्य उस रक्षक प्रभु का हो जाता है। अध्यात्म के जिज्ञासु का सम्पूर्ण जीवन कष्ट-मुक्त हो जाता है:

धरम राये दर कागद फाड़े
जन नानक लेखा समझा॥
धर्मराज उन जीवों का सारा बही-खाता फाड़ देते हैं, जो गुरु परमेश्वर पर सब कुछ छोड़ देते हैं।
धरम राये अब कहा करैगा।
जयो फाटियो सगलो लेखा॥
धर्मराज अब क्या कर सकते हैं। (सत पुरुषों की सेवा व पवित्र संगत के बीच आने के कारण) मेरा सारा ही बही-खाता फाड़ दिया गया है।
श्री गुरु नानक देव जी इस भयानक कलियुग में इस अहंकार के रोग के सब से बड़े वैद्य बन कर आए हैं।

राजा को इस ‘मैं’ से, अहंकार से छुटकारा दिलाते हुए गुरु नानक देव जी ने उसके सभी बंधन काट दिए थे, जिनसे जीव इस संसार में आने-जाने के चक्कर में पड़ा रहता है।

साड्ढे ढहण विच देरी है।
गुरु नानक दे बख़सण विच कोई देरी नहीं।

जब हम अपना अहं त्याग कर सतगुरु जी के पवित्र आश्रय में आ जाते है तो धर्मराज द्वारा लिखा हुआ हमारा बही-खाता फाड़ दिया जाता है। हमारे पूर्व पापों की मैल धुल जाती है। प्रभु की कृपा से हमारी अन्तरात्मा में प्रकाश हो जाता है। इस प्रकार हम नवजीवन में पदार्पण करते हैं। गुरु रूपी महान् ज्योति की ओर मुख करने से ही पूर्व जन्मों का अंधकार परछाई की तरह लुप्त हो जाता है।

इस प्रकार गुरु जी के कृपापात्रा बनने पर राजा को नाम, दौलत तथा अहंकार की व्यर्थता का और अहम् से स्वतंत्रा होने का ज्ञान हो जाता है।

हउमै बूझै ता दर सूझै॥
आत्म-निरीक्षण की मर्मस्पर्शी प्रतिक्रिया से इस भयानक ‘मैं’ को व्यापक रूप में समझना चाहिए तथा दुविधा की इस दलदल को पार कर के प्रभु के गृह में सहज प्रवेश करना चाहिए। सभी कर्मों के कत्र्ता ‘मैं’ का प्रभु के पवित्र चरणों में अर्पण करने से इस का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ‘मैं’ ही है जो हमें कई प्रकार के बन्धनों से बाँधे रखती है। जब ‘मैं’ का विगलन हो जाता है तो न पूर्व कर्मों का फल भोगना पड़ता है, और न अब के कर्मों का। प्राणी मुक्त हो जाता है।
जिहि प्राणी हउमै तजी करता रामु पछानि॥
कहु नानक वहु मुकति नरु इह मन साची मानु॥

जिन प्राणियों ने ‘अहं’ का त्याग कर दिया है तथा प्रभु को ही कत्र्ता-धत्र्ता जान लिया है, उन्होंने जीवन-मुक्ति (जीवित रहते हुए मुक्ति) प्राप्त कर ली है। गुरु नानक जी कहते हैं कि इसी को सत्य ज्ञान मानना चाहिए।

‘जीवन-मुक्त’ अपने आप को तुच्छ जानता है। वह ‘एक ओंकार सतनाम’ को ही कत्र्ता पुरुख सृजनहार समझता है तथा अहं-रहित हो जाता है। इसलिए वह कर्मों से अलिप्त हो जाता है तथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

जीवन-मुक्ति की अवस्था में मनुष्य अपने वश में कुछ नहीं समझता। वह केवल प्रभु को ही कत्र्ता मानता है। उसी की इच्छा सर्वोपरि है। उस में ‘मैं’ और ‘मेरी’ की कोई भावना नहीं होती। उस के हृदय में ‘तू’ ‘तूं’ तथा सब कुछ तेरा, तूं ही कत्र्ता-धत्र्ता की भावना बनी रहती है।

जीवन-मुक्त मृत्यु से पूर्व ही मृत्यु प्राप्त कर चुका होता है, क्योंकि उसने ‘मैं’ और ‘मेरी’ को मार लिया होता है। उस की अलग पहचान मर चुकी होती है। उस की व्यक्तिगत इच्छा मर चुकी होती है। यही ‘मैं-मेरी’ की मृत्यु है।

गुरु नानक साहिब जी के प्रत्येक ‘शब्द’ का प्रभाव सरल व हृदयस्पर्शी होता है।

विनम्रता के साकार रूप गुरु नानक साहिब के ईश्वर-स्तुति के प्रत्येक शब्द का प्रभाव आश्चर्यजनक होता था। उनके शब्दों का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ता था कि ‘अहं’, जो सम्पूर्ण मानवता का मुख्य शत्रु व सब बीमारियों की जड़ है। उनकी हजूरी में बड़े-बड़े सिद्धों, वीरों तथा फ़कीरों के ‘अहं’ का बीज ही नष्ट हो जाता था तथा वे उच्चतर सत्य के गहरे अर्थों को समझने के योग्य हो जाते थे।

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